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साहित्य, समाज और छात्रों को सही और नई दिशा प्रदान करता है उपन्यास ‘काकुलम’

नई दिल्ली। ‘आयाम’ जैसे प्रतिष्ठित सम्मान को इस वर्ष जिन चर्चित कवि, कथाकार-उपन्यासकार और आलोचक डॉ. भरत प्रसाद को देने की घोषणा हुई है, वे निसंसेदह एक ऐसे सही साहित्यकार हैं, जिनके साहित्य को पढ़कर लगता है कि व्यक्ति अपने आपके आसपास के वातावरण से उत्पन्न साहित्य को पढ़ रहा है। डॉ. भरत प्रसाद के उपन्यासों के पात्र हमारे इर्द-गिर्द ही घूमते हुए दृष्टिगोचर होते हैं, यही कारण है कि मैं युवा सपनों की उड़ान की मुक्तिगाथा ‘काकुलम’ उपन्यास जब पढ़ने लगा तो इसे पढ़कर ही दम लिया। हालांकि समय के अभाव में मैंने कई सीटिंग में इसे पूरा किया। दिल्ली से गुड़गांव जाते हुए सफर में भी इसे पढ़ने का लालच न छोड़ पाया। इस उपन्यास का एक अंश देखिए, जो मेरे दिल की गहराई में उतर गया : ‘मत भूलो कि भोर होने से पहले जो मिट्टी में अन्न उगाता है — वह तुम्हारा ही एक भाई या पिता है। मत भूलो कि तुम्हारा उत्थान लाखों की पीठ को सीढ़ियां बनाने से तय हुआ है। यह भी याद रखना साथी। जब​ किसान का पसीना मिट्टी में गिरता है, तो फसलें नहीं सभ्यताएं लहलहाती हैं।’

इस उपन्यास में वर्तमान दौर में विश्वविद्यालय के परिवेश, वातावरण और संघर्ष के मध्य युवा और चंचल मन को बहुत ही आत्मीयता से देखने–परखने–समझने का अत्यंत सार्थक और सराहनीय प्रयास हुआ है। प्रकृति की ओर से यहां प्रभाती पक्षी की उड़ान के साथ प्रश्न उभरता है: ‘कौन हो तुम?’ ‘क्या हैसियत है तुम्हारी और किसके बल पर तुम इतने इतराते—इठलाते हो?’ इस देश की सभ्यता, संस्कृति और मूल पहचान को जहां मिटाने के असंख्य प्रयास चल रहे हैं, वहीं ऐसे दौर में यह उपन्यास युवाओं खासकर विश्वविद्यालय स्तर के छात्र एवं छात्राओं के लिए एक मार्गदर्शक की भांति इस कद्र अमूल्य धरोहर है कि यह हरेक व्यक्ति के लिए न केवल पठनीय है वरन समय की जरूरत भी है कि इस तरह का साहित्य पढ़ा जाना ही चाहिए।

कथा बताती है कि धवल और अनेक छात्र नेता पक्षी के प्रश्न का उत्तर दे पाने की स्थिति में नहीं हैं। अपने समय का यह गम्भीर वैचारिक द्वंद्व इस उपन्यास की कथा का आधार तत्व है। यहां छात्र तो हैं हीं, विचारधाराओं की विविध रंगतें भी हैं और छात्र आंदोलनों के मध्य छात्र-समुदाय की वस्तुथिति भी अपने पूरे कलेवर के साथ उपस्थित है। पुरातन किन्तु स्थायी महत्व के विचारकों पर नए समय द्वारा लगाए गए आक्षेप और सवालिया निशान हैं। ऐसे में विश्वविद्यालय की भूमि शिक्षा की कम और राजनीति का अखाड़ा अधिक हुई जा रही है। एक जेनुइन छात्र का संकट और अधिक गहरा गया है। इस कठोर यथार्थ के बावजूद युवा मन के प्रेमिल स्पर्श की कोमलता लिए इस उपन्यास की कथा ग्रामीण व शहरी वितान के मध्य परिवर्तित होती नई संस्कृति को परखती चलती है। इस नई संस्कृति के कलेवर में अपनी पुरातन संस्कृति से परिचित कराने वाला यह उपन्यास एक साहित्यकार का अपनी कर्तव्यनिष्ठा और साहित्य धर्म को भली-भांति निभाने में सफल रहा है।

एक पठनीय और स्वागतयोग्य उपन्यास के साथ-साथ हरेक पुस्तकालय में रखने योग्य है : ‘काकुलम’।
— तेजपाल सिंह धामा, संस्थापक नीरा आर्य स्मारक एवं पुस्तकालय खेकड़ा

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